इन दिनों जैसा की आप देख रहे है चार धाम की यात्रा चल रही है। हर साल अलग-अलग जगहों से लोग अपनी श्रद्धा से भगवान केदारनाथ के दर्शक के लिए आते है।बर्फ से बनी चादर ओढ़े हिमालय में बसे है भोलेनाथ जिन्हें हम केदारनाथ कहते हैं ,यह उत्तराखंड के गढ़वाल क्षेत्र में स्थित है। केदारनाथ मंदिर ‘चार धाम’ और ‘पंच केदार’ यात्रा का एक हिस्सा है। पुरानी मान्यताओं के अनुसार इस मंदिर का निर्माण महाभारत काल में पांडवों ने किया था। गुरु आदि शंकराचार्य ने इस मंदिर का पुनर्निमाण 8वीं सदी में किया था। महाभारत के दौरान पांडवों ने अपने किए पापों का पश्चयाताप करने के लिए भगवान शिव की खोज की थी। भगवान शिव जी उनसे नाराज़ होकर केदारखंड (उत्तराखंड )छिप गए और उन्होंने नंदी(बैल)का रूप धारण कर लिया था। भीम ने शिव जी को पहचान लिया था और पकड़ लिया था। शिव जी फिर वहीं धरती में समा गए थे, जिससे उनकी पीठ बाहर ही रह गई तब से यह केदारनाथ के नाम से जाना जाने लगे। शिव जी के अन्य शरीर के अंग बाहु-तुंगनाथ में,मुख-रुद्रनाथ में, नाभि- मध्यमहेश्वर में और जटाएं- कल्पेश्वर में स्थित हैं।
स्थापत्य शैली :-
कटे हुए ग्रेनाइट पत्थरों से बना यह मंदिर हिमालय के अत्यंत कठिन भूभाग में स्थित है।इसकी दीवारें 12 फीट मोटी हैं यह बिना किसी गारे के जुड़ी हैं।यह मंदिर उत्तर भारतीय नागर शैली का उदाहरण है। गर्भगृह में स्थित शिवलिंग स्वयंभू है, यानी यह प्राकृतिक रूप से प्रकट हुआ है। यह रुद्रप्रयाग ज़िला, उत्तराखंड, भारत में स्थित है।इसकी ऊंचाई 3,583 मीटर (11,755 फीट)है।केदारनाथ मंदाकिनी नदी के तट पर स्थित है।केदारनाथ धाम हिमालय की ऊँचाइयों में स्थित, चारों ओर बर्फ़ से ढकी पर्वत-शृंखलाएं और ग्लेशियर हैं। यह स्थान केदारनाथ वन्यजीव अभयारण्य के भीतर आता है।
मंदिर का स्वरूप और आंतरिक संरचना :-
मुख्य द्वार पर भगवान कृष्ण, पांडवों और शिव-पार्वती की मूर्तियाँ बनाई गई हैं। मंदिर के गर्भगृह में एक बड़ा, काले रंग का अर्धगोलाकार पत्थर शिवलिंग के रूप में स्थापित है। मंदिर के मंडप जिसमें श्रद्धालु पूजा करते हैं। वहां कीछत लकड़ी से बनी और पत्थरों से ढकी हुई हैं। मंदिर का गुंबद गोलाकार चूड़ीदार आकार का है, जो मंदिर की ऊँचाई को बढ़ाता है।
मंदिर के कपाट खुलने और बंद होने की समय :-
खुलने का समय: अक्षय तृतीया (अप्रैल/मई)।
बंद होने का समय: भाई दूज (अक्टूबर/नवंबर)।
शीतकालीन पूजा:भगवान शिव की मूर्ति को उखीमठ ले जाया जाता है (ओंकारेश्वर मंदिर)।
वहाँ 6 महीने तक पूजा होती है।
पूजा-पद्धति और परंपरा :-
रावल (मुख्य पुजारी): कर्नाटक के लिंगायत समुदाय से होते हैं।
आरती: प्रातः और संध्या दो बार होती है।
विशेष पूजा: महामृत्युंजय जाप, रुद्राभिषेक आदि कराए जाते हैं।