पांडव नृत्य उत्तराखंड का एक खास लोकनृत्य है जो खासतौर पर गढ़वाल के इलाके में देखने को मिलती है। यह नृत्य केवल लोगों का मनोरंजन नहीं करता, बल्कि धार्मिक आस्था और पुरानी कहानियों को गांव-गांव तक पहुंचाने का भी एक ज़रिया है। इसे महाभारत की कथाओं के गीतों, संवादों और नाटक के ज़रिए लोगों के सामने दिखाया जाता है।
इतिहास और शुरुआत:
पांडव नृत्य की शुरुआत को महाभारत काल से जोड़ा जाता है। ऐसा माना जाता है कि जब पांडव अपना वेश बदलकर हिमालय के इलाके में गए थे तब उनकी कहानियां वहां के लोगों के जीवन का हिस्सा बन गईं और फिर समय के साथ लोगों ने इन घटनाओं को गीत और नाटक के रूप में दिखाना शुरू किया और धीरे-धीरे यह नृत्य एक परंपरा बन गया जिसे आज हम पांडव नृत्य के नाम से जानने लगे हैं।
क्या है इस नृत्य की विशेषता
1. इस नृत्य में युधिष्ठिर, भीम, अर्जुन, नकुल, सहदेव, द्रौपदी, श्रीकृष्ण और दुर्योधन जैसे महाभारत के इन किरदार को निभाया जाता है।
2. कलाकार पारंपरिक बजने वाले ढोल-दमाऊ की धुन पर गीत गाते हैं और संवाद बोलते हैं, जो आमतौर पर गढ़वाली भाषा में होते हैं।
3. यह नृत्य एक समूह में किया जाता है जिसमें गांव के कई लोग मिलकर हिस्सा लेते हैं।
4. इसे सिर्फ नाटक या नृत्य नहीं, बल्कि एक धार्मिक उत्सव की तरह माना जाता है, जिसमें श्रद्धा और भक्ति जुड़ी होती है।
कब और कहां होता है:
पांडव नृत्य दशहरे और दीपावली के बाद शुरू होता है और नवंबर के महीने तक चलता है। इसकी तैयारी गांवों के मंदिरों या खुले मैदानों में रात को की जाती है और कई बार ये नृत्य पूरी रात भर चलता है।
पांडव नृत्य सिर्फ एक कला नहीं है, यह हमारे धार्मिक ग्रंथों और लोककथाओं को जीवित रखने का एक तरीका है। यह समाज के लोगों को उनकी परंपराओं से जोड़े रखता है।
पांडव नृत्य उत्तराखंड की सांस्कृतिक पहचान का एक अहम हिस्सा है। यह नृत्य परंपरा, इतिहास, और आस्था का मेल है जिसे संभाल कर रखना और अगली पीढ़ियों तक पहुंचाना हम सभी की जिम्मेदारी है।