लखमा ब्वारी और घराट का भूत:

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उत्तराखंड के पहाड़ों के बीच में हिमसारी गांव बसा था। यह गांव बुरांश के ऊंचे ऊंचे पेड़ों से घिरा हुआ था। एक दिन 16 साल की लखमा की शादी एक युवा से हुई और वह हिमसारी गांव की बहू बन गई। लखमा देखने में बहुत ही सुंदर थी और उसका स्वभाव भी बहुत अच्छा था। वह सबसे घुल मिलकर और हमेशा हंसते रहती थी। इसके इस स्वभाव के कारण यह गांव की औरतों से 2 साल में ही घुल मिल गई। लखमा बहुत ही दयालु स्वभाव की भी थी। उसकी सास को वह बहुत पसंद थी क्योंकि लखमा काम करने में भी माहिर थी। उसकी सास का नाम रामदेई था। लेकिन इसके जेठानी इसको पसंद नहीं करते थी। वह हमेशा इसको देखकर जलती रहती थी। सीधी साधी लखमा इस बात से अनजान थी और अपनी जेठानी के साथ हर समय उसके काम में उसकी मदद कराती थी। उसकी जेठानी खेत, पनघट, और जंगल आदि जहां कहीं भी जाती लखमा भी उसके साथ-साथ जाती थी। हर समय लखमा की ज़ुबान पर दीदी- दीदी रहता। उसकी जेठानी का नाम बर्देई था।

आषाढ़ का महीना शुरू हो गया था। लोग गांव के नीचे वाली घाटी में खेतों में रोपनी लगाने की तैयारी कर रहे थे। गर्मी इतनी थी कि पूरा शरीर पसीने से भीग रहा था। गांव के मुखिया के घर से रोपनी की शुरुआत होती थी। तब बाद में औरों की बारी आती। रोपनी की बारी उस दिन लखमा के घर वालों थी। लखमा की सास ने रोपनी से दो दिन पहले गेहूं, मंडवे को मिलाकर और अच्छे से सुखाकर थैले में भर दिया। रोपनी के लिए दो-चार पंडालून को भी बुलाकर भेज दिया। सास ने बड़ी बहू को घाट से सुबह गेहूं पिसवाने के लिए कहा क्योंकि बाद में तेज धूप हो जाती। फिर बड़ी बहू (रामदेई) ने थैले को उठाया तो उसको वह बहुत भारी लगा और फिर गाड़ की चढ़ाई उतराई को देखकर उसको वह उसके बस की बात न लगी। यह सब देख उसने बहाना बनाया और अपनी सास से बोली मेरी कमर में दर्द है, मैं इतना भारी थैला नहीं उठा सकती। यह सुनते ही सास कुछ बोले उससे पहले लखमा बोल पड़ी ‘कोई बात नहीं सासू मां’ दीदी की जगह मैं चली जाऊंगी। यह सुनकर बड़ी बहू को चैन पड़ गया और उसने राहत की सांस ली। लखमा ने सोचा सुबह होते ही वह घराट चली जाएगी इसलिए उसने थैला उठाकर बरामदे में रख दिया। लखमा को घराट जाने के चक्कर में नींद नहीं आई। जैसे ही उसको नींद आई वह एकदम से चौंक कर उठ गई और आधी रात को बाहर देखने आई की कहीं सुबह तो नहीं हो गई।लेकिन रात थी और चांद बादलों में छुपा हुआ था। देखने में ऐसा लग रहा था कि मानो सुबह होने ही वाली हो क्योंकि थोड़ा बहुत उजाला था। इस वजह से लखमा चुपचाप गेहूं का थैला उठाकर घराट चली गई। घराट डेढ़ – दो मिल नीचे घाटी में था। वहां जाकर उसने गेहूं घराट में डाल दिया और गुल का पानी घराट में छोड़ दिया। घराट से बाहर जब लखमा अपनी कमर सीधी करने आई तब उसने देखा कि चांद बादलों के पीछे से निकल रहा था। जैसे पहले से ही कोई दुश्मन घात लगाकर छुपा हो और मौका आने पर सामने आ गया। चांद ने भी उसे धोखा दे दिया क्योंकि ऐसा लग रहा था जैसे कि मनो शायद चांद भी उसकी सुंदरता की वजह से उससे नफ़रत करता हो। यह देखकर लखमा चिंता में आ गई क्योंकि वह आधी रात को घराट आ गई थी और तो और चारों ओर सन्नाटा था। वह मन ही मन में सोचने लगी ‘हे भगवान यह कैसा छल हुआ मेरे साथ।’ लेकिन अब वह जाति भी तो कहां क्योंकि घराट से गांव दूर था। उसे डर लग रहा था। वह सहम गई थी और डर के कारण वापस घराट में जाकर गेहूं पीसने लगी। अब उसको घराट के पानी से भी अजीब सी आवाज़ें आ रही थी, “को ली तृ, को ली तू। छी: छी: चल हट।” लखमा को काटो तो खून नहीं। यह सुनकर लखमा डर गई और डर के मारे घराट के कोने में छुप कर बैठ गई। उसको लगा कोई आदमी है लेकिन बाद में उसका अनुमान डर में बदल गया। तभी उसने अपने सामने एक परछाई देखी जो लखमा से पूछ रही थी, ‘लाऊं नानी बट्टी, लाऊं नानी बट्टी’ और बार-बार वह अपनी बात को बोलता और हंसता। लखमा को लग गया कि वह परछाई भूत है क्योंकि उसके बहुत बड़े-बड़े दांत थे। लखमा खुद को बचाने के लिए घराट के कोने में छुप गई। लखमा डर की वजह से बेहोश हो गई क्योंकि वह भूत दरवाजे पर ही था और वह दरवाजे से हिल तक नहीं रहा था। हिमसारी गांव में जब रात को लखमा की सास लघुशंका के लिए बाहर आई तब उसने देखा कि गेहूं का थैला बरामदे से गायब है और यह देखकर उसकी सास ने लखमा के पति को आवाज़ देकर बुलाया और बोली “हे मायाराम बरामदे से गेहूं का थैला कहां गया?“ तब फिर मायाराम ने अंदर से लेटे हुए बोला कि ’लखमा ले गई घट।’ यह सुनते ही लखमा की सास सुन पड़ गई। क्या???। लखमा की सास ने बोला ’ये क्या बोल रहा है तू।’ जल्दी बाहर आ अभी तो आधी रात हुई है और तेरी पत्नी आधी रात को भूतों की जगह पर चली गई। तभी उसकी मां ने उससे कहा जल्दी तोताराम को साथ लेकर वहां पर जा। वह घबराकर तोताराम को बुलाने लगी। यह सुनते ही मायाराम घबरा कर उठ गया और जल्दी-जल्दी तैयार होकर अपने भाई के साथ घराट की ओर भागा। मायाराम के दिल में एक बुरी आशंका हो रही थी जिसकी वजह से उसका दिल बहुत जोर से धड़क रहा था। जब मायाराम आधे रास्ते में पहुंचा तो वह जोर से लखमा को आवाज देने लगा। लेकिन उस घाटी में उसकी आवाज को सुनने वाला कोई नहीं था। जब वह आवाज दे रहा था तो उसकी आवाज घाटी में ही गूंज रही थी। मायाराम को जिस बात का डर था वही हुआ। उसने देखा कि घराट की देहरी पर लखमा मुंह के बल बेहोश पड़ी थी, उसका एक हाथ जमीन पर और एक थैले के ऊपर था। उसके पति ने उसको बहुत देर तक हिलाया और आवाज दी लखमा लखमा, लेकिन मायाराम को कोई जवाब नहीं मिला क्योंकि लखमा तो अब भूत के साथ उस अविनाशी रास्ते पर सफर कर रही थी जहां से कोई भी आज तक लौट कर वापस न आया।

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