देहरादून. विवाह के बाद हर दंपत्ति अपने घर आंगन में एक नन्हा सा खिलता फूल यानी बच्चा चाहता है लेकिन कई लोगो के आंगन बच्चों की किलकारियों से सूने होते हैं.चमोली में जिले की मंडल घाटी में, समुद्र तल से करीब 2200 मीटर ऊँचाई पर बसा अनसूया माता का प्राचीन मंदिर केवल एक तीर्थ नहीं, बल्कि संतानहीन दंपतियों की आखिरी उम्मीद है. लोक मान्यता के अनुसार यहाँ माता अनसूया के दर्शन मात्र से, और वार्षिक मेले में रात्रि जागरण करने से गौद सूनी नहीं रहती है. 2 दिसंबर से यह मेला शुरू हो गया है.सदियों से यह विश्वास इतना गहरा है कि दूर-दूर के गाँवों से लोग पैदल, डंडी-कंडी में बीमारों को लादकर, यहाँ तक पहुँचते हैं. कथा शुरू होती है एक ऐसी ही रात से साल था 1998. मंडल घाटी में बर्फ अभी पूरी तरह गली नहीं थी.ठंडी हवाएँ देवदार के जंगलों से गुजरकर शिवालय की घंटियों को झंकार रही थीं. मंदिर के बाहर मेले की तैयारियाँ जोरों पर थीं. लकड़ी की छोटी-छोटी दुकानें सज रही थीं, कहीं जागर गूँज रहे थे, कहीं पंडित जी हवन की लकड़ियाँ चुन रहे थे. उसी भीड़ में एक जोड़ा चुपचाप कोने में बैठा था. पुरुष का नाम था प्रताप सिंह नेगी, जिनकी उम्र करीब 35 साल की थी.उनकी पत्नी कमला की शादी को बारह साल गुजर गए थे. गाँव में लोग ताना मारते नहीं थकते थे. कमला की सास अब खुल्लम-खुल्ला कहने लगी थी कि “ये बाँझ हैं बच्चे को जन्म नहीं दे सकती है. इसके बाद उन्हें माता अनसूया के प्राचीन मंदिर का पता चला उन्होंने जागरण में माता का पूजन किया तो कुछ वक्त बाद चमत्कार हुआ और उनकी मनोकामना पूरी हो गई. यहां विशेष बात यह है कि रात को माता के जागर गाए जाते हैं. पंडित के साथ स्थानीय लोग ‘जय अनसूया माई, त्रिदेव की पटरानी संतान दात्री माँ, करो सबकी मनोकामना पूरानी ‘ गाते हैं और रात भर जागते हैं. मान्यता है कि माता अनसूया यहाँ रात में भक्तों के बीच आती हैं और जो सच्चे मन से माँगता है, उसकी गोद नहीं रहती खाली. प्रताप और कमला ने भी रात भर जागरण किया. कमला बार-बार मूर्ति के सामने गिरकर रोती, ‘माँ! मुझे एक बच्चा दे दो. बस एक मैं उसका नाम अनसूया रखूँगी. इस तरह माता प्रसन्न हुई.
